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अध्यात्मकल्पद्रुम
अथ द्वादशः देवगुरुधर्मशुद्ध्याधिकारः तत्त्वेषु सर्वेषु गुरुः प्रधानं,
हितार्थधर्मा हि तदुक्तिसाध्याः । श्रयंस्तमेवेत्यपरीक्ष्य मूढ !, ___ धर्मप्रयासान् कुरुषे वृथैव ॥१॥
अर्थ - "सर्व तत्त्वो में गुरु मुख्य है, आत्महित के निमित्त जो धर्म करने के हैं वे उनके कहने से साध्य हैं । हे मूर्ख ! यदि उनकी परीक्षा किये बिना तू उनका आश्रय लेगा तो तेरे धर्म सम्बन्धी किये हुए सारे प्रयास (धर्म के कार्यों में की जानेवाली मेहनत) व्यर्थ होंगे।" भवी न धर्मैरविधिप्रयुक्तै
र्गमी शिवं येषु गुरुर्न शुद्धः । रोगी हि कल्यो न रसायनैस्तै
र्येषां प्रयोक्ता भिषगेव मूढः ॥२॥ अर्थ - "जहाँ धर्म के बतानेवाले गुरु शुद्ध नहीं होते हैं वहाँ विधिरहित धर्म करने से प्राणी मोक्ष की प्राप्ति नहीं कर सकता है, जिस रसायण में खिलानेवाला वैद्य मूर्ख हो उसे खाने से व्याधिग्रस्त प्राणी निरोगी नहीं हो सकता है।" समाश्रितस्तारकबुद्धितो यो,
यस्यास्त्यहो मज्जयिता स एव । ओघं तरीता विषमं कथं स ?
तथैव जन्तुः कुगुरोर्भवाब्धिम् ॥३॥