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अध्यात्मकल्पद्रुम
पुनः पुनर्जीव तवोपदिश्यते,
बिभेषि दुःखात्सुखमीहसे चेत् । कुरुष्व तत्किञ्चन येन वाञ्छितं,
भवेत्तवास्तेऽवसरोऽयमेव यत् ॥१६॥ अर्थ - "हे भाई ! हम तो तुझे बारम्बार यही कहते हैं कि यदि तू दुःखों का भय तथा सुखों की अभिलाषा रखता है तो ऐसा कार्य कर, जिससे तुझे वाञ्छित वस्तु की प्राप्ति हो सके, क्योंकि इस समय तुझे सुअवसर प्राप्त हो गया है (यह तेरा समय है)।" धनाङ्गसौख्यस्वजनानसूनपि,
त्यज त्यजैकं न च धर्ममार्हतम् । भवन्ति धर्माद्धि भवे भवेऽर्थिता
न्यमून्यमीभिः पुनरेष दुर्लभः ॥१७॥ __अर्थ - "पैसा, शरीर, सुख, सगे-सम्बन्धी और अन्त में प्राण भी छोड़ दे, परन्तु एक वीतराग अर्हत परमात्मा के बताये हुए धर्म को कदापि न छोड़, धर्म से भवोभव में ये पदार्थ, (धन, सुख आदि) प्राप्त होंगे, परन्तु इनसे (धन आदि से) वह (धर्म) मिलना दुर्लभ है।" दुःखं यथा बहुविधं सहसेऽप्यकामः,
कामं तथा सहसि चेत्करुणादिभावैः । अल्पीयसापि तव तेन भवान्तरे स्या
दात्यन्तिकी सकलदुःखनिवृत्तिरेव ॥१८॥