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अध्यात्मकल्पद्रुम
दुःखों का कभी भी अन्त नहीं हो सकेगा ।" गुणस्तुतीर्वाञ्छसि निर्गुणोऽपि, सुखप्रतिष्ठादि विनापि पुण्यम् । अष्टाङ्गयोगं च विनापि सिद्धी
र्वातूलता कापि नवा तवात्मन् ॥८॥ अर्थ – “तेरे अन्दर गुण नहीं है फिर भी तू गुण की प्रशंसा सुनना चाहता है, बिना पुण्य के सुख तथा ख्याति की अभिलाषा रखता है, इसीप्रकार अष्टांगयोग के बिना सिद्धियों की वाञ्छा करता है। तेरा बकवास तो कुछ विचित्र ही जान पड़ता है ।"
पदे पदे जीव ! पराभिभूती:,
पश्यन् किमीर्ष्यस्यधमः परेभ्यः ।
अपुण्यमात्मानमवैषि किं न ?
तनोषि किं वा न हि पुण्यमेव ? ॥९॥
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अर्थ - "हे जीव ! दूसरों द्वारा किये गए अपने पराभव को देखकर तू अधमपन से दूसरों से इर्ष्या क्यों करता है ? तुम अपनी आत्मा को पुण्यहीन क्यों नहीं समझता है ? अथवा पुण्य क्यों नहीं करता है ?" किमर्दयन्निर्दयमङ्गिनो लघून्,
विचेष्टसे कर्मसु ही प्रमादतः । यदेकशोऽप्यन्यकृतार्दनः, सह
त्यनन्तशोऽप्यङ्ग्ययमर्दनं भवे ॥१०॥