________________
अध्यात्मकल्पद्रुम
अर्थ - " संसारसमुद्र में भटकते हुए अत्यन्त कठिनता से प्राप्त करने योग्य, जहाज के सदृश, तीर्थंकरभाषित धर्मरूपी जहाज को प्राप्त करके जो प्राणी मनपिशाच के वशीभूत होकर उस जहाज का परित्याग कर देते हैं और संसारसमुद्र में गिर जाते हैं वे मूर्खपुरुष दीर्घदृष्टिवाले कदापि नहीं कहे जा सकते हैं ।" सुदुर्जयं ही रिपुवत्यदो मनो, रिपुकरोत्येव च वाक्तनू अपि । त्रिभिर्हतस्तद्रिपुभिः करोतु किं ?
पदीभवन् दुर्विपदां पदे पदे ॥९॥
अर्थ - " अत्यन्त कठिनता से जीता जानेवाला यह मन शत्रु के समान व्यवहार करता है, कारण कि यह वचन तथा काया को भी दुश्मन बना देता है । ऐसे तीन शत्रुओं से घेरा हुआ तू स्थान स्थान पर विपत्तियों का भाजन बनकर क्या कर सकेगा ?"
५०
रे चित्तवैरि ! तव किं नु मयापराद्धं, यद्दुर्गतौ क्षिपसि मां कुविकल्पजालैः । जानासि मामयमपास्य शिवेऽस्ति गन्ता,
तत्किं न सन्ति तव वासपदं ह्यसंख्या: ॥१०॥ अर्थ - " हे चित्तवैरी ! मैने तेरे प्रति ऐसा कौन-सा अपराध किया है जिससे तू मुझे कुविकल्परूप जाल में बांधकर दुर्गति में फेंक देता है ? क्या तू यह मन में विचार