________________
अध्यात्मकल्पद्रुम
धन्याः केऽप्यनधीतिनोऽपि, सदनुष्ठानेषु बद्धादरा । दुःसाध्येषु परोपदेशलवतः श्रद्धानशुद्धाशयाः ॥ केचित्त्वागमपाठिनोऽपि दधत, स्तत्पुस्तकान् येऽलसाः । अत्रामुत्रहितेषु कर्मसु कथं, ते भाविनः प्रेत्यहाः ॥७॥
अर्थ - "कितने ही प्राणियों ने शास्त्र का अभ्यास न किया हो फिर भी दूसरों के थोड़े से उपदेश से कठिनता से होनेवाले शुभ अनुष्ठानों का आदर करने लग जाते हैं और श्रद्धापूर्वक शुभ आशयवाले हो जाते हैं । उनको धन्य है ! कितने ही तो आगम के अभ्यासी होते हैं और पुस्तकें भी साथ लिये फिरते हैं फिर भी इस भव तथा परभव के हितकारी कार्यों में प्रमादी बन जाते हैं और परलोक का नाश कर देते हैं उनका क्या होगा ?"
४३
धन्यः स मुग्धमतिरप्युदितार्हदाज्ञा
रागेण यः सृजति पुण्यमदुर्विकल्पः । पाठेन किं व्यसनतोऽस्य तु दुर्विकल्पै
र्यो दुस्थितोऽत्र सदनुष्ठितिषु प्रमादी ॥८ ॥ अर्थ - " बुरे संकल्प नहीं करनेवाला और तीर्थंकर महाराज के द्वारा दी गई आज्ञाओं के राग से शुभ क्रिया करनेवाला प्राणी अभ्यास करने में मुग्धबुद्धि हो तो भी भाग्यशाली है। जो प्राणी बुरे संकल्प किया करता है और जो शुभ क्रिया में प्रमादी होता है उस प्राणी को अभ्यास से और उस आदत से क्या लाभ ? "