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अध्यात्मकल्पद्रुम
अधीतिनोऽर्चादिकृते जिनागमः, प्रमादिनो दुर्गतिपापतेर्मुधा । ज्योतिर्विमूढस्य ही दीपपातिनो,
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गुणाय कस्मै शलभस्य चक्षुषी ॥३॥
अर्थ - "दुर्गति में पड़नेवाले प्रमादी प्राणी यदि स्वपूजा निमित्त जैनशास्त्र का अभ्यास करते हैं, तो वह निष्फल है । दीपक की ज्योति के लोभ में पड़कर दीपक में गिरनेवाले पतंगियों को उनकी आँखे क्या लाभ देनेवाली हैं ?" मोदन्ते बहुतर्कतर्कपणचणाः, केचिज्जयाद्वादिनां ।
काव्यैः केचन कल्पितार्थघटनै, स्तुष्टाः कविख्यातितः ॥ ज्योतिर्नाटकनीतिलक्षणधनु, र्वेदादिशास्त्रैः परे ।
ब्रूमः प्रेत्यहिते तु कर्मणि जडान्, कुक्षिम्भरीनेव तान् ॥४॥
अर्थ - "कितने ही अभ्यासी अनेक प्रकार के तर्कवितर्कों के विचारों में प्रसिद्ध होकर वादियों को जीतकर आनंद का अनुभव करते हैं, कितने ही कल्पना करके काव्य-रचना कर कवि की बड़ाई पाकर आनंद का अनुभव करते हैं और कितने ही ज्योतिषशास्त्र, नाट्यशास्त्र, नीतिशास्त्र, सामुद्रिकशास्त्र, धनुर्वेद आदि शास्त्रों के अभ्यास