________________
३८
विना कषायान्न भवार्तिराशिर्भवेद्भवेदेव च तेषु सत्सु ।
मूलं हि संसारतरोः कषायास्त
अध्यात्मकल्पद्रुम
त्तान् विहायैव सुखी भवात्मन् ! ॥१८॥
अर्थ – “बिना कषाय के संसार की अनेकों व्याधियाँ नहीं हो सकती हैं और कषायों के होने पर पीड़ाएँ अवश्यमेव होती हैं । संसारवृक्ष का मूल ही कषाय है । इसलिये हे चेतन ! इनका परित्याग कर सुखी हो । " समीक्ष्य तिर्यङ्नरकादिवेदनाः, श्रुतेक्षणैर्धर्मदुरापतां तथा । प्रमोदसे यद्विषयैः सकौतुकैस्
ततस्तवात्मन् ! विफलैव चेतना ॥१९॥ अर्थ - " शास्त्ररूपी नैत्रों से तिर्यंच, नारकी आदि की वेदनाओं को जानकर, तथा उसीप्रकार धर्मप्राप्ति की कठिनता को भी जानकर, यदि तू कुतूहलवाले विषयों में आनन्द मानेगा तो हे चेतन ! तेरा चेतनता बिल्कुल व्यर्थ है ।" चोरैस्तथा कर्मकरैर्गृहीते,
दुष्टैः स्वमात्रेऽप्युपतप्यसे त्वम् ।
पुष्टैः प्रमादैस्तनुभिश्च पुण्य,
धनं न किं वेत्स्यपि लुट्यमानम् ॥२०॥ अर्थ - "चोर अथवा कामकाज करनेवाले (नौकरचाकर) जब तेरा थोड़ा सा भी धन व्यय कर देते हैं तब तो