________________
अध्यात्मकल्पद्रुम
३१
अथ सप्तमः कषायत्यागाधिकारः
रे जीव ! सेहिथ सहिष्यसि च व्यथास्तास्त्वं नारकादिषु पराभवभूः कषायैः । मुग्धोदितैः कुवचनादिभिरप्यतः किं ?, क्रोधान्निहंसि निजपुण्यधनं दुरापम् ॥१॥ अर्थ - " हे जीव ! कषाय से पराभव का स्थान होकर तूने नरक में अनेक कष्ट सहन किये हैं और आगे भी सहन करेगा, तो फिर मूर्ख पुरुषों की दी हुई गाली आदि बुरे वचनों पर क्रोध करके तू अत्यन्त कठिनता से मिलने योग्य पुण्यधन को क्यों नष्ट करता है ?" पराभिभूतौ यदि मानमुक्तिस्ततस्तपोऽखंडमतः शिवं वा । मानादृतिर्दुर्वचनादिभिश्चेत्तपःक्षयात्तन्नरकादिदुःखम् ॥२॥ वैरादि चात्रेति विचार्य लाभा, लाभौ कृतिन्नाभवसंभविन्याम् ।
-
तपोऽथवा मानमवाभिभूता, विहास्ति नूनं हि गतिर्द्विधैव ॥ ३ ॥ अर्थ - " दूसरों की ओर से पराभव होने पर यदि मान का त्याग किया जाए तो उससे अखण्ड तप होता है और उससे मोक्ष की प्राप्ति होती है । दूसरों की ओर से दुर्वचन सुनने पर यदि मान का आदर किया जाए तो तप का क्षय