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अध्यात्मकल्पद्रुम
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अर्थ - " शरीर नाम का नौकर कर्मविपाक राजा का दुष्ट सेवक है, वह तुझे कर्मरूपी रस्सी से बांधकर इन्द्रियरूपी मद्यपान करने के पात्र से प्रमादरूपी मदिरा पिलाएगा । इस प्रकार तुझे नारकी के दुःख भोगने योग्य बनाकर फिर कोई बहाना लेकर वह सेवक चला जायगा, इसलिये स्वहित के निमित्त इस शरीर को थोड़ा थोड़ा देकर तू संयम का भार वहन करवा ।" यतः शुचीन्यप्यशुचिभवन्ति, कृम्याकुलात्काकशुनादिभक्ष्यात् । द्राग् भाविनो भस्मतया ततोंऽगात्मांसादिपिण्डात् स्वहितं गृहाण ॥६॥
अर्थ - "जिस शरीर के सम्बन्ध से पवित्र वस्तुएँ भी अपवित्र हो जाती हैं, जो कृमि से भरा हुआ है, जो कौओं तथा कुत्तों के भक्षण करने योग्य है, जो थोड़े समय में राख हो जानेवाला है और जो मांस का पिण्ड है उससे तू तो स्वयं का हित कर ।"
परोपकारोऽस्ति तपो जपो वा, विनश्वराद्यस्य फलं न देहात् ।
सभाटकादल्पदिनाप्तगेह -
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मृत्पिण्डमूढः फलमश्नुते किम् ? ॥७॥