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अथ चतुर्थो धनममत्वमोचनाधिकारः
याः सुखोपकृतिकृत्वधिया त्वं, मेलयन्नसि रमा ममताभाक् ।
पाप्मनोऽधिकरणत्वत एता, हेतवो ददति संसृतिपातम् ॥१॥
अर्थ - "लक्ष्मी के लालच से ललचाया हुआ तू (स्व) सुख और उपकार की बुद्धि से जो लक्ष्मी का संग्रह करता है वह अधिकरण होने से पाप का ही हेतुभूत है और संसारभ्रमण करानेवाली है ।" यानि द्विषामप्युपकारकाणि, सर्पोन्दुरादिष्वपि यैर्गतिश्च ।
शक्या च नापन्मरणामयाद्या,
अध्यात्मकल्पद्रुम
हन्तुं धनेष्वेषु क एव मोहः ॥२॥
अर्थ - "जिन पैसों से शत्रु का भी उपकार हो जाता है, जिन पैसों से सर्प, चूहा आदि की गति होती है, जो पैसे मरण, रोग आदि किसी भी आपत्ति को हटाने में समर्थ नहीं है उन पैसों पर मोह क्यों करना चाहिए ?"
ममत्वमात्रेण मनःप्रसाद
सुखं धनैरल्पकमल्पकालम् ।
आरंभपापैः सुचिरं तु दु:खं,
स्याद्दुर्गतौ दारुणमित्यवेहि ॥ ३ ॥ अर्थ – “ये पैसे मेरे हैं इस विचार से मनप्रसादरूप