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अध्यात्मकल्पद्रुम
किसी भी प्रकार का अपना स्वार्थ देखते हैं तब तक ही उनपर स्नेह रखते हैं, इस भव में भी इस प्रकार की रीति देखकर परभव के हितकारी अपने स्वार्थ के लिये कौन प्रयत्न नहीं करता है ?" ||२६|| स्वप्नेंद्रजालादिषु यद्वदाप्तैरोषश्च तोषश्च मुधा पदार्थैः । तथा भवेऽस्मिन् विषयैः समस्तैरेवं विभाव्यात्मलयेऽवधेहि ॥२७॥
अर्थ - "जिस प्रकार स्वप्न अथवा इन्द्रजाल आदि के पदार्थों पर रोष तथा तोष करना व्यर्थ है; उसी प्रकार इस भव में प्राप्त हुये पदार्थों पर भी ( रोष तथा तोष करना व्यर्थ है) इसप्रकार विचार करके आत्मसमाधि में तत्पर हो |" ॥२७॥ एष मे जनयिता जननीयं, बंधवः पुनरिमे स्वजनाश्च । द्रव्यमेतदिति जातममत्वो, नैव पश्यसि कृतांतवशत्वम् ॥२८
अर्थ - "यह मेरा पिता है, यह मेरी माता है, ये मेरे भाई हैं और ये मेरे सगे- स्नेही हैं, यह मेरा धन है - इस प्रकार तुझे ममत्व हो गया है, परन्तु इसीसे तू यम के वश में होगा, इसको तू देखता भी नहीं है । " ॥२८॥
नो धनैः परिजनैः स्वजनैर्वा, दैवतैः परिचितैरपि मंत्रैः । रक्ष्यतेऽत्र खलु कोऽपि कृतांतान्नो,
विभावयसि मूढ़ किमेवम् ? ॥२९॥