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अध्यात्मकल्पद्रुम
अथ षोडशः साम्यसर्वस्वाधिकारः
एवं सदाभ्यासवशेन सात्म्यं, नयस्व साम्यं परमार्थवेदिन् ।
यतः करस्थाः शिवसंपदस्ते, भवन्ति सद्यो भवभीतिभेत्तुः ॥ १ ॥
अर्थ – “हे तात्त्विक पदार्थ के जाननेवाले ! इसप्रकार (ऊपर पन्द्रह द्वारों में कहे अनुसार) निरन्तर अभ्यास के योग से समता को आत्मा के साथ जोड़ दे, जिससे भव के भय को भेजनेवाले तुझे मोक्षसम्पत्तियाँ शीघ्र हस्तगत हो सके । " त्वमेव दुःखं नरकस्त्वमेव,
त्वमेव शर्मापि शिवं त्वमेव ।
स्वमेव कर्माणि मनस्त्वमेव,
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जहीह्यविद्यामवधेहि चात्मन् ! ॥२॥ अर्थ - "हे आत्मन् ! तू ही दुःख, तू ही नरक, तू ही सुख और मोक्ष भी तू ही है । अपितु तू ही कर्म और मन भी तू ही है । अविद्या को छोड़ दे और सावधान हो जा । " निःसङ्गतामेहि सदा तदात्म
न्नर्थेष्वशेषेष्वपि साम्यभावात् ।
अवेहि विद्वन् ! ममतैव मूलं,
शुचां सुखानां समतैव चेति ॥३॥ अर्थ - “हे आत्मन् ! सर्व पदार्थों पर सदैव समताभाव रखकर नि:संगता प्राप्त कर । हे विद्वन् ! तू जान लेना कि
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