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अध्यात्मकल्पद्रुम
कृताकृतं स्वस्य तपोजपादि,
शक्तीरशक्तीः सुकृतेतरे च । सदा समीक्षस्व हृदाथ साध्ये,
यतस्व हेयं त्यज चाव्ययार्थी ॥६॥ अर्थ - "तप, जप आदि तूने किये हैं या नहीं, उत्तम कार्य और अनुत्तम कार्यों के करने में शक्ति अशक्ति कितनी है इन सभी बातों का सदैव अपने हृदय में विचार कर । तू मोक्षसुख का अभिलाषी है इसलिये करने योग्य (हो सके ऐसे) कार्यों के लिये प्रयत्न कर और त्यागने योग्य कार्यो का परित्याग कर।" परस्य पीडापरिवर्जनात्ते,
त्रिधा त्रियोग्यप्यमला सदास्तु । साम्यैकलीनं गतदुर्विकल्पं,
मनोवचश्चाप्यनघप्रवृत्तिः ॥७॥ अर्थ - "दूसरे जीवों को तीनों प्रकार की पीड़ा न पहुंचाने से तेरे मन, वचन और काया के योगों की त्रिपुटी निर्मल होती है, मन एक मात्र समता में ही लीन हो जाता है, अपितु वह उसका दुर्विकल्प छोड़ देता है और वचन भी निरवद्य व्यापार में ही प्रवृत्त रहता है।" मैत्री प्रमोदं करुणां च सम्यक्,
मध्यस्थतां चानय साम्यमात्मन् ! । सद्भावनास्वात्मलयं प्रयत्नात्,
कृताविरामं रमयस्व चेतः ॥८॥