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________________ इन्द्रिय पराजय शतक हा हा दुरंत दुट्ठा, विसयतुरंगा कुसिक्खिआ लोए । भीसण भवाडवीए, पाडंति जिआण मुद्धाणं ॥ ९३ ॥ ५५ अर्थ : खेद की बात है कि दुष्ट और कुशिक्षित ऐसे विषय रूपी घोड़े मुग्ध जीवों को भयंकर महाअटवी में डालते हैं ॥९३॥ विसय पिवासातत्ता, रत्ता नारीसु पंकिलसरंमि । दुहिआ दीणा खीणा, रुलंति जीवा भववणंमि ॥९४॥ अर्थ : विषय की प्यास से संतप्त, कीचड़वाले सरोवर की तरह नारी में आसक्त, दुःखी, दीन और क्षीण जीव भववन में भटकते हैं ॥९४॥ गुणकारिआइ घणियं धिइरज्जुनिअंतिआई तुह जीव । निअयाइं इंदिआई, वल्लिनियत्ता तुरंगुव्व ॥९५॥ अर्थ : जिस प्रकार डोरी से नियंत्रित अश्व गुणकारी है, उसी प्रकार धृति रूपी डोरी से नियंत्रित इन्द्रियाँ भी अतिशय गुण करनेवाली हैं ॥९५॥ मण वयण काय जोगा, सुनिअत्ता ते वि गुणकरा हुंति । अनिअत्ता पुण भंजंति, मत्त करिणुव्व सीलवणं ॥९६॥ अर्थ : वश में किये गये मन, वचन और काया के योग भी गुणकारी होते हैं जबकि वश में नहीं रहे ये योग मदोन्मत्त हाथी की तरह चारित्र रूपी वन का नाश ही करते हैं ॥९६॥
SR No.034151
Book TitleVairagya Shatak
Original Sutra AuthorPurvacharya Maharshi
Author
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages58
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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