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वैराग्यशतक
में स्नेह के अनुराग से रक्त दिखाई देते हैं... वे अपराह्न में वैसे दिखाई नहीं देते हैं || ४ ||
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मा सुअह जग्गियव्वे, पलाइयव्वंमि कीस वीसमेह ? | तिणि जणा अणुलग्गा, रोगो अ जरा अ मच्चू अ ॥५॥
अर्थ : जाग्रत रहने योग्य धर्म-कर्म के विषय में सोओ मत । नष्ट होने वाले इस संसार में किसका विश्वास करोगे ? रोग, जरा और मृत्यु ये तीन तो तुम्हारे पीछे ही लगे हुए हैं ॥५॥ दिवस-निसा-घडिमालं, आउं सलिलं जियाण घेत्तूणं । चंदाइच्चबइल्ला, कालऽरहट्टं भमाडंति ॥६॥
अर्थ : चन्द्र और सूर्य रूपी बैलों से जीवों के आयुष्य रूपी जल को दिन और रात रूपी घट में ग्रहण कर काल रूपी अरहट जीव को घुमाता है ||६|| सा नत्थि कला तं नत्थि, ओसहं तं नत्थि किं पि विन्नाणं । जेण धरिज्जइ काया, खज्जंती कालसप्पेण ॥७॥
॥६॥
अर्थ : ऐसी कोई कला नहीं है, ऐसी कोई औषधि नहीं है, ऐसा कोई विज्ञान नहीं है, जिसके द्वारा काल रूपी सर्प के द्वारा खाई जाती हुई इस काया को बचाया जा सके ॥७॥
दीहरफणिदनाले, महियरकेसर दिसामहदलिल्ले । उअ-पियइ कालभमरो, जणमयरंदं पुहविपउमे ॥८ ॥ अर्थ : खेद है कि दीर्घ फणिधर रूपी नाल पर पृथ्वी