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इन्द्रिय पराजय शतक
अर्थ : अशुचि, मल-मूत्र के प्रवाह रूप, वमन, पित्त, वसा, मज्जा, फेफडा, मेद, मांस और हड्डियों के करंडक रूप चमड़ी से ढका हुआ, साक्षात् मांस के पिंड समान, मल-मूत्र से मिश्रित, श्लेष्म- कफ आदि अशुचि बहाने वाला, अनित्य, कृमियों का निवास ऐसा युवती का शरीर मतिबाह्य पुरुषों के लिए बंधन ही है ॥ ५१-५२॥
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पासेण पंजरेण य, बज्झति चउप्पया य पक्खी य । इअ जुवइ पंजरेणय, बद्धा पुरिसा किलिस्संति ॥५३॥
अर्थ : पाश द्वारा चतुष्पद और पिंजरे द्वारा पंखी को बंधन ग्रस्त किया जाता है, उसी प्रकार युवती रूपी पिंजरे में बद्ध पुरुष क्लेश पाता है ॥५३॥
अहो मोहो महामल्लो, जेणं अम्हारिसा वि हु । जाणता वि अणिच्चत्तं, विरमन्ति न खणं पि हु ॥ ५४ ॥
अर्थ : आश्चर्य है कि मोह महामल्ल (का इनका प्रभाव) है, कि जिस कारण अनित्यत्व को जानते हुए भी हमारे जैसे भी स्त्रियों के संग से क्षण भर के लिए भी विराम नहीं पाते हैं ॥५४॥
जुवइहि सह कुणंतो संसगिंग कुणइ सयलदुक्खेहिं । न हि मूसगाण संगो, होइ सुहो सह... बिडालेहिं ॥५५ ॥
अर्थ : युवती के साथ संसर्ग करनेवाला सभी दुःखों के साथ संसर्ग करता है चूहे को बिल्ली के साथ संसर्ग कभी