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इन्द्रिय पराजय शतक
जहा य किंपागफला मणोरमा, रसेण वन्नेण य भुंजमाणा । ते खुडूडए जीविय पच्चमाणा, एसोवमा कामगुणा विवागे ॥ १५ ॥
अर्थ : जिस प्रकार किंपाक का फल स्वाद और रंग से मन को आकर्षित करने वाला होता है, परन्तु खाने के बाद पचने पर प्राणों का नाश करता है, उसी प्रकार कामभोग भी परिणाम में इसी विपाक वाले हैं ॥ १५ ॥
सव्वं विलवियं गीयं, सव्वं नट्टं विडंबणा । सव्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा ॥१६॥
अर्थ : सभी प्रकार के संगीत विलाप तुल्य हैं, सभी प्रकार के नाटक विडंबना ही हैं, सभी प्रकार के आभूषण भार समान हैं और सभी प्रकार के काम सुख दुःख को लानेवाले हैं ॥१६॥
देविंद चक्कवट्टित्तणाइ रज्जाइ उत्तमा भोगा । पत्तो अणंतखुत्तो, न य हं तत्तिं गओ तेहिं ॥१७॥
अर्थ : देवेन्द्र और चक्रवर्ती पद और राज्य के उत्तम भोग अनंतबार प्राप्त किये हैं, परन्तु इनसे मुझे कभी तृप्ति नहीं हुई है ॥१७॥
संसार चक्कवाले सव्वे, वि अ पुग्गला मए बहुसो । आहरिआय परिणामिआय, न य तेसु तत्तोऽहं ॥१८॥