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प्रशमरति
समुद्धात से निवृत्त होकर मुनियों के योग्य योगों को करते हुए 'योगनिरोध' करते हैं ॥२७८॥ पञ्चेन्द्रियोऽथ संज्ञी यः पर्याप्तो जघन्ययोगी स्यात् । निरूणद्धि मनोयोगं ततोऽप्यसंख्यातगुणहीनम् ॥२७९॥
अर्थ : जो पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्त एवं जघन्य योगवाला होता है, वह उससे भी असंख्यात गुणहीन मनोयोग को रोकता है ॥२७९॥ द्वीन्द्रियसाधारणयोर्वागुच्छ्वासावधो जयति तद्वत् । पनकस्य काययोगं जघन्यपर्याप्तकस्याधः ॥२८०॥
अर्थ : जिस तरह (जीवात्मा) मनोयोग का निरोध करता है उसी तरह वचनयोग और श्वासोच्छास का भी निरोध करता है । बेइन्द्रिय जीव को भी वचनयोग होता है
और साधारण वनस्पति के जीव को जो श्वासोच्छास होता है, उससे भी असंख्यगुणा हानि से समस्त वचनयोग और श्वासोच्छास का निरोध करता है । इसके पश्चात् जघन्य पर्याप्त साधारण वनस्पति के जीव को जो काययोग होता है, उससे भी असंख्यगुणहीन काययोग का निरोध करता हुआ जीव समस्त काययोग का निरोध करता है ! ॥२८०॥ सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति काययोगोपगस्ततो ध्यात्वा । विगतक्रियमनिवर्तित्वमुत्तरं ध्यायति परेण ॥२८१॥