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प्रशमरति
तज्जयमवाप्य जितविघ्नरिपुर्भवशतसहस्त्रदुष्प्रापम् । चारित्रमथाख्यातं सम्प्राप्तस्तीर्थकृत्तुल्यम् ॥२५८॥
अर्थ : उस पर विजय प्राप्त करके [विभूति-लब्धि का उपयोग न करते हुए] विघ्न करनेवाले शत्रु [क्रोध वगैरह कषायों] को जीतकर, लाखों जन्मों में दुर्लभ, तीर्थंकर के जैसा 'यथाख्यात-चारित्र' प्राप्त करता है ॥२५८॥ शुक्लध्यानाद्यद्वयमवाप्य कर्माष्टकप्रणेतारम् । संसारमूलबीजं मूलादुन्मूलयति मोहम् ॥२५९॥
अर्थ : प्रथम दो शुक्लध्यान [पृथक्त्व वितर्क सविचार एवं एकत्व वितर्क-अविचार] प्राप्त करके [ध्यान करके] आठों कर्मों के नायक एवं संसारवृक्ष के मूल बीजरूप मोह को [साधक] जड़मूल से उखाड़ फेंकता है ॥२५९॥ पूर्वं करोत्यनन्तानुबन्धिनाम्नां क्षयं कषायाणाम् । मिथ्यात्वमोहगहनं क्षपयति सम्यक्त्वमिथ्यात्वम् ॥२६०॥
अर्थ : [साधक] पहले अनंतानुबंधी नामक कषायों का [क्रोध-मान-माया-लोभ] नाश करता है...इसके बाद प्रबल मिथ्यात्व-मोह का क्षय करता है, तत्पश्चात् मिश्रमोह का क्षय करता है ॥२६०॥ सम्यक्त्वमोहनीयं क्षपयत्यष्टावतः कषायांश्च । क्षपयति ततो नपुंसकवेदं स्त्रीवेदमथ तस्मात् ॥२६१॥