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प्रशमरति
सम्यग्दृष्टिर्ज्ञानी विरतितपोध्यानभावनायोगैः । शीलाङ्गसहस्राष्टादशकमयत्नेन साधयति ॥ २४४॥
अर्थ : सम्यग्दृष्टि ज्ञानी व्रत -तप ध्यान - भावना और योग से शील के १८ हजार अंगों को बिना प्रयास के साध लेता है ॥२४४॥
धर्माद् भूम्यादीन्द्रियसंज्ञाभ्यः करणतश्च योगाश्च । शीलाङ्गसहस्त्राणामष्टादशकस्यास्ति निष्पत्तिः ॥ २४५॥
अर्थ : धर्म से, पृथ्वीकाय, वगैरह से, इन्द्रियों से, संज्ञा से, करण और योग से शील के १८ हजार अंगों की उत्पत्ति होती है ॥२४५॥
शीलार्णवस्य पारं गत्वा संविग्नसुगमपारस्य । धर्मध्यानमुपगतो वैराग्यं प्राप्नुयाद्येोग्यम् ॥ २४६॥
अर्थ : संसारभीरु मुनि के द्वारा सरलता से पार किया जा सके वैसे शीलरूप समुद्र को पारकर जो मुनि धर्मध्यान में तत्पर रहता है, उसे योग्य वैराग्य की प्राप्ति होती है ॥२४६॥
आज्ञाविचयमपायविचयं च सद्ध्यानयोगमुपसृत्य । तस्माद्विपाकविचयमुपयाति संस्थानविचयं च ॥२४७॥
अर्थ : [शीलांग-समुद्र का पारगामी साधु ] आज्ञाविचय और अपायविचय नामक ध्यानयोग को प्राप्तकर, विपाकविचय