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प्रशमरति
अत्यन्त परोक्ष है...प्रशमसुख प्रत्यक्ष है...न तो वह पराधीन है न ही नाशवंत है ॥२३७॥ निर्जितमदमदानानां वाक्कायमनोविकाररहितानाम् । विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्षः सुविहितानाम् ॥२३८॥
अर्थ : जिन्होंने मद और काम को जीत लिया है...जो मन-वचन-काया के विकारों से मुक्त हैं...परपदार्थों की आशाएँ जिनकी अवशेषभूत हो चुकी हैं...वैसे सुविहित [शास्त्रविहित विधि के पालक-वाहक] मुनियों के लिए तो यहीं पर [इस वर्तमान जीवन में ही] मोक्ष है ॥२३८॥ शब्दादिविषयपरिणाममनित्यं दुःखमेव च ज्ञात्वा । ज्ञात्वा च रागदोषात्मकानि दुःखानि संसारे ॥२३९॥ स्वशरीरेऽपि न रज्यति शत्रावपि न प्रदोषमुपयाति । रोगजरामरणभयैरव्यथितो यः स नित्यसुखी ॥२४०॥ __अर्थ : जो [आराधक] शब्द वगैरह विषयों के परिणाम को अनित्य एवं दुःखरुप जानकर व संसार में रागद्वेषात्मक दुःखों को जानकर अपने शरीर पर भी राग नहीं करता है और दुश्मन के प्रति भी द्वेष नहीं करता है, वह रोग-बुढ़ापा और मृत्यु से अव्यथित रहता है और वह (इस तरह) सर्वदा सुखी होता है ॥२३९-२४०॥