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प्रशमरति
पाप का ग्रहण न हो ऐसी, आत्मा में भली-भांति धारण की हुई प्रवृत्ति को, जिनोपदिष्ट हितकारी संवर कहते हैं, उसका चिन्तन करना चाहिए ॥१५८॥ यद्वद्विशोषणादुपचितोऽपि यत्नेन जीर्यते दोषः। तद्वत्कर्मोपचितं निर्जरयति संवृतस्तपसा ॥१५९॥
अर्थ : जिस तरह बढ़ा हुआ भी विकार प्रयत्न के द्वारा, उपवास करने से नष्ट हो जाता है उसी तरह संवृत जीवात्मा तपश्चर्या से इकट्ठे हुए कर्मों की निर्जरा करता है ॥१५९॥ लोकस्याधस्तिर्यग् विचिन्तयेदुर्ध्वमपि च बाहल्यम् । सर्वत्र जन्म-मरणे रुपिद्रव्योपयोगांश्च ॥१६०॥
अर्थ : अधोलोक, मध्यलोक और उर्ध्वलोक के विस्तार का विचार करना चाहिए और (यह भी विचार करना चाहिए कि) लोक में सर्वत्र में जन्मा हूँ...और मरा हूँ...सभी रूपी द्रव्यों का मैंने उपभोग किया है ॥१६०॥ धर्मोऽयं स्वाख्यातो जगद्धितार्थं जिनैर्जितारिगणैः । येऽत्र रतास्ते संसारसागरं लीलयोत्तीर्णाः ॥१६१॥
अर्थ : शत्रुगण [राग-द्वेष-मोह वगैरह] के विजेता जिन्होंने जगत के हित के लिए इस धर्म का निर्दोष कथन किया है । जो [जीवात्मा] इस धर्म में अनुरक्त हुए, वे संसार सागर को सहजता से तैर गये ॥१६१॥