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प्रशमरति
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जाग्रत रहकर त्याग करना चाहिए ॥१३३।। पिण्डैषणानिरूक्तः कल्प्याकल्प्यस्य यो विधिः सूत्रे । ग्रहणोपभोगनियतस्य तेन नैवामयभयं स्यात् ॥१३४॥
अर्थ : आगम में 'पिंडैषणा' नामक अध्ययन में कल्प्य-अकल्प्य की जो विधि बतायी गई है उस विधि से परिमित (आहार) ग्रहण करने वालों और परिमित उपभोग करने वालों को रोग का भय हो ही नहीं सकता ॥१३४।। व्रणलेपाक्षोपाङ्गवदसङ्गयोगभरमात्रयात्रार्थम् । पन्नग इवाभ्यवहरेदाहारं पुत्रपलवच्च ॥१३५॥
अर्थ : असंग पुरुष अपने संयम योगों के निर्वाह हेतु फोड़े पर लगाये जाने वाले मल्हम की तरह और गाड़ी की पहिये की धुरी पर लगाये जाने वाले तेल की तरह, जिस प्रकार साँप आहार करता है, और जिस प्रकार अपने ही संतान के मांस का आहार पिता करता है, उसी प्रकार वो आहार करे ॥१३५॥ गुणवदमूच्छितमनसा तद्विपरीतमपि चाप्रदुष्टेन । दारूपमधृतिना भवति कल्प्यमास्वाद्यमास्वाद्यम् ॥१३६॥
__ अर्थ : लकड़े के जैसे धैर्यवाले साधु, ग्रहण करने योग्य स्वादिष्ट भोजन रागरहित मन से और स्वादरहित भोजन द्वेषरहित मन से यदि करते हैं तो वह भोजन करने