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प्रशमरति
है उस शीलवान को कुल का अभिमान कैसा ? ॥८४॥ कः शुक्रशोणितसमुद्भवस्य सततं चयापचयिकस्य । रोगजरापाश्रयिणो मदावकाशोऽस्ति रूपस्य ॥८५॥
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अर्थ : वीर्य और खून से उत्पन्न, सतत् हानि और वृद्धि पाने वाले, रोग एवं वृद्धत्व के स्थानभूत शरीर के रूप के अभिमान को कहाँ स्थान है ? ॥८५॥
नित्यं परिशीलनीये त्वग्मांसाच्छादिते कलुषपूर्णे । निश्चयविनाशधर्मिणि रूपे मदकारणं किं स्यात् ॥८६॥
अर्थ : सदैव जिसका संस्कार करना पड़े, चमड़ी और मांस से आच्छादित, अशुचि से भरे हुए और निश्चितरूप से विनाश पाने वाले रूप पर अभिमान करने का क्या कारण हो सकता है ? ॥८६॥
बलसमुदितोऽपि यस्मान्नरः क्षणेन विबलत्वमुपयाति । बलहीनोऽप्यथ बलवान् संस्कारवशात् पुनर्भवति ॥८७॥
अर्थ : बलवान मनुष्य भी पल भर में निर्बल बन जाता है, बलहीन भी संस्कारवश वापस बलवान बन जाता है ॥८७॥ तस्मादनियतभावं बलस्य सम्यग्विभाव्य बुद्धिबलात् । मृत्युबले चाबलतां मदं न कुर्याद्बलेनापि ॥८८॥ अर्थ : अतः बल के अनियतभाव और मृत्यु
के बल