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प्रशमरति एतद्दोष महासंचयजालं शक्यमप्रमत्तेन । प्रशमस्थितेन घनमप्युद्वेष्टयितुं निरवशेषम् ॥५८॥ ___ अर्थ : इन दोषों के [राग-द्वेषादि और उसके कारण उत्पन्न होते कर्मो के] बड़े समूह, गहन ऐसी जाल का समूलोच्छेदन करना प्रमादरहित और प्रशम में स्थिर (आत्मा) के लिये शक्य है ॥५८॥ अस्य तु मूलनिबन्धं ज्ञात्वा तच्छेदनोद्यमपरस्य । दर्शनचारित्रतपःस्वाध्यायध्यानयुक्तस्य ॥५९॥ ____अर्थ : इसका (दोष समूह के जाल का) मूल कारण जानकर (१) उसके उच्छेदन हेतु उद्यत बने हुए को, (२) दर्शन, चारित्र-तप-स्वाध्याय और ध्यान से युक्त को ॥५९॥ प्राणवधानृतभाषणपरधनमैथुनममत्वविरतस्य । नवकोट्युद्गमशुद्धोञ्छमात्रयात्राऽधिकारस्य ॥६०॥
अर्थ : (३) हिंसा-असत्यवचन-परधनहरण-मैथुनसेवन और परिग्रह से विरक्त को (४) नवकोटि शुद्ध, उद्गम शुद्ध और उंछवृत्ति से यात्रा का (संयमयात्रा का) जिन्हें अधिकार है उनको ॥६॥ जिनभाषितार्थसद्भावभाविनो विदितलोकतत्त्वस्य । अष्टादशशीलासहस्रधारिणः कृतप्रतिज्ञस्य ॥६१॥
अर्थ : जिनकथित अर्थ के सद्भाव से भावित होने