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प्रशमरति
श्रुतशीलविनयसन्दूषणस्य धर्मार्थकामविघ्नस्य । मानस्य कोऽवकाशं मुहूर्तमपि पण्डितो दद्यात् ॥२७॥
अर्थ : श्रुत, शील और विनय को दूषित करने वाले एवं धर्म और अर्थ काम-पुरुषार्थ में विघ्नकारक ऐसे मान को कौन विद्वान-पुरुष एक पल के लिए भी अपनी आत्मा में स्थान देगा? ॥२७॥ मायाशीलः पुरुषो यद्यपि न करोति किञ्चिदपराधम् । सर्प इवाविश्वास्यो भवति तथाप्यात्मदोषहतः ॥२८॥
अर्थ : मायावी मनुष्य, चाहे मायाजनित कोई भी अपराध या गुनाह न करता हो फिर भी स्वयं के माया-दोष से उपहत बना वह साँप की भाँति अविश्वसनीय बनता है ॥२८॥ सर्वविनाशाश्रयिणः सर्वव्यसनैकराजमार्गस्य । लोभस्य को मुखगतः क्षणमपि दुःखान्तरमुपेयात् ? ॥२९॥
अर्थ : सारे अपायों का आश्रयस्थान, सारे दुःखों काव्यसनों का मुख्य मार्ग सा जो लोभ, उसका शिकार बना हुआ कौन जीव [लोभपरिणामयुक्त] सुख प्राप्त करता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥२९॥ एवं क्रोधो मानो माया लोभश्च दुःखहेतुत्वात् । सत्त्वानां भवसंसारदुर्गमार्गप्रणेतारः ॥३०॥