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सर्वे ते प्रियबान्धवाः, नहि रिपुरिह कोऽपि । मा कुरु कलिकलुषं मनो, निजसुकृतविलोपि विनयः॥१८०॥
अर्थ :- ये सभी तुम्हारे प्रिय बन्धु हैं, इनमें कोई तुम्हारा दुश्मन नहीं है । कलह से कलुषित मन सुकृत का लोप करने वाला होता है (अतः अपने मन को कलुषित मत करो) ॥१८०॥ यदि कोपं कुरुते परो, निजकर्मवशेन । अपि भवता किं भूयते, हदि रोषवशेन । विनय० ॥१८१ ॥
अर्थ :- यदि कोई अपने कर्म के वशीभूत होकर क्रोध करता है, तो तुम हृदय में क्रोध के वशीभूत क्यों बनते हो? ॥१८१॥ अनुचितमिह कलहं सतां, त्यज समरसमीन । भज विवेककलहंसतां, गुणपरिचयपीन ॥ विनय० ॥१८२ ॥
अर्थ :- हे समत्वरस के मीन ! सज्जनों के लिए कलह अनुचित है, अतः तू उसका त्याग कर । सद्गुण के परिचय से पुष्ट बने हुए हे चेतन ! विवेकरूपी कलारूप हंसता को भज । (अर्थात् हंस की तरह विवेकी बन) ॥१८२॥ शत्रुजनाः सुखिनः समे, मत्सरमपहाय। सन्तु गन्तुमनसोऽप्यमी, शिव-सौख्यगृहाय । विनय० ॥१८३॥ ___ अर्थ :- मत्सर भाव का त्यागकर सभी शत्रुजन भी सुखी बनें और शिवसुख के गृहरूप मुक्ति-पद की प्राप्ति के इच्छुक बनें ॥१८३॥
शांत-सुधारस
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