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अर्थ :- आर्त्त और रौद्रध्यान (परिणाम) रुपी अग्नि से भावना रुपी विवेक चातुर्य जिसका जलकर नष्ट हो चुका है
और जो विषयों में लुब्ध है, ऐसी आत्मा के मन में समता रुपी अंकुर कैसे प्रकट हो सकते हैं ? ॥५॥ यस्याशयं श्रुतकृतातिशयं विवेकपीयूषवर्षरमणीयरमं श्रयन्ते । सद्भावनासुरलता न हि तस्य दूरे, लोकोत्तरप्रशमसौख्यफलप्रसूतिः ॥६॥ वसंततिलका
अर्थ :- श्रुतज्ञान से निपुण बना हुआ जिसका आशय, विवेक रुपी अमृतवर्षा से सुन्दरता का आश्रय बना हुआ है, उसके लिए लोकोत्तर प्रशमसुख को जन्म देनेवाली सद्भावना रुपी कल्पलताएँ दूर नहीं हैं ॥६॥ अनित्यत्वाशरणते, भवमेकत्वमन्यताम् । अशौचमास्त्रवं चात्मन्!, संवरं परिभावय ॥७॥ अनुष्टप् कर्मणो निर्जरां धर्म-सूक्ततां लोकपद्धतिम् ।। बोधिदुर्लभतामेतां, भावयन्मुच्यसे भवात् ॥८॥
अर्थ :- अनित्यता, अशरणता, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशौच, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म, लोकस्वरुप और बोधिदुर्लभता रुप इन भावनाओं का भावन करने से हे आत्मन् ! तू इस संसार से मुक्त हो जाएगी ॥७-८॥
शांत-सुधारस