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निकाचितानामपि कर्मणां यद्, गरीयसां भूधरदुर्धराणाम् । विभेदने वज्रमिवातितीव्र, नमोऽस्तु तस्मै तपसेऽद्भुताय ॥११३॥
उपेन्द्रवज्रा अर्थ :- विशाल और दुर्धर पर्वतों को तोड़ने में वज्र अत्यन्त तेजी से काम करता है, इसी प्रकार अत्यन्त निकाचित कर्मों को तोड़ने में भी तप अत्यन्त तीव्रता से काम करता है, ऐसे अद्भुत तप को नमस्कार हो ॥११३॥ किमुच्यते सत्तपसः प्रभावः, कठोरकर्मार्जितकिल्बिषोऽपि । दृढप्रहारीव निहत्य पापं, यतोऽपवर्गं लभतेऽचिरेण ॥११४॥
उपजाति अर्थ :- सम्यग् तप के प्रभाव की तो क्या बात करें ? इसके प्रभाव से तो कठोर और भयंकर पाप करने वाले दृढ़प्रहारी जैसे भी शीघ्र मोक्ष को प्राप्त कर जाते हैं ॥११४।। यथा सुवर्णस्य शुचिस्वरूपं, दीप्तः कृशानुः प्रकटीकरोति । तथात्मनः कर्मरजो निहत्य,
ज्योतिस्तपस्तद् विशदीकरोति ॥११५॥ उपजाति अर्थ :- जिस प्रकार प्रदीप्त अग्नि स्वर्ण के शुद्ध स्वरूप को प्रगट करती है, उसी प्रकार तप भी आत्मा के कर्म-मैल का नाश कर, उसके ज्योतिर्मय स्वभाव को फैलाता है ॥११५।। बाह्येनाभ्यन्तरेण प्रथितबहुभिदा जीयते येन शत्रुश्रेणी बाह्यान्तरङ्गा भरतनृपतिवद् भावलब्धद्रढिम्ना । शांत-सुधारस
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