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॥ सप्तम भावनाष्टकम् ॥
परिहरणीया रे, सुकृतिभिरास्त्रवा, हृदि समतामवधाय । प्रभवन्त्येते रे, भृशमुच्छ्रङ्खला, विभु गुण - विभव - वधाय १८९ । अर्थ :- हृदय में समता धारणकर सज्जन पुरुषों को आस्रव का त्याग कर देना चाहिए । अत्यन्त उत्छृंखल बने हुए ये (आस्रव) आत्मा के गुण- वैभव का घात करने में समर्थ हैं ॥८९॥ कुगुरु - नियुक्ता रे, कुमति - परिप्लुताः, शिवपुरपथमपहाय । प्रयतन्तेऽमी रे, क्रियया दुष्ट्या, प्रत्युत शिव - विरहाय ॥ ९० ॥
अर्थ :- कुगुरु से प्रेरित अथवा कुमति से भरे हुए प्राणी मोक्षमार्ग का त्यागकर दुष्ट क्रिया के द्वारा उल्टे मोक्ष के विरह के लिए ही प्रयत्नशील होते हैं ॥ ९० ॥
अविरतचित्ता रे, विषय - वशीकृता, विषहन्ते विततानि । इह परलोके रे, कर्म - विपाकजान्य- विरल - दुःख - शतानि ॥ ९१ ॥ अर्थ :- विरति से रहित चित्त वाले, विषय के वशीभूत बने हुए प्राणी कर्म के विपाक जन्य अति भयंकर सैकड़ों दुःखों को इस लोक और परलोक में निरन्तर सहन करते हैं ॥ ९१ ॥
करि - झष- मधुपारे, शलभ - मृगादयो, विषय - विनोद - रसेन । हन्त लभन्ते रे, विविधा वेदना, बत परिणति - विरसेन ॥९२॥
अर्थ :- हाथी, मछली, भ्रमर, पतंगा तथा हिरण आदि विषयविलास के प्रेम के कारण अहा ! खेद है, बेचारे ! विविध वेदनाओं को प्राप्त करते हैं । वास्तव में, विषय की
शांत-सुधारस
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