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७. आश्रव भावना यथा सर्वतो निर्झरैरापतद्भिः , प्रपूर्येत सद्यः पयोभि-स्तटाकः । तथैवाश्रवैः कर्मभिः सम्भृतोऽङ्गी, __भवेद् व्याकुलश्चञ्चलः पङ्किलश्च ॥८४॥ भुजंगप्रयातम्
अर्थ :- जिस प्रकार चारों ओर से आते हुए झरनों के जल से तालाब शीघ्र ही भर जाता है, उसी प्रकार यह प्राणी भी आस्त्रवद्वारों से आने वाले कर्मों से भर जाता है और फिर व्याकुल, चंचल और मलिन बनता है ॥८४॥ यावत् किञ्चिदिवानुभूय तरसा कर्मेह निर्जीर्यते, तावच्चास्त्रवशत्रवोऽनुसमयं सिञ्चन्ति भूयोऽपि तत् । हा कष्टं कथमानवप्रतिभटाः शक्या निरोर्बु मया, संसारादतिभीषणान्मम हहा मुक्तिः कथं भाविनी ॥ ८५ ॥
शार्दूलविक्रीडितम् __ अर्थ :- जब तक कुछ कर्मों को भोगकर जल्दी ही उनकी निर्जरा कर देते हैं, तब तक तो आस्त्रव रूप शत्रु प्रति-समय अन्य कर्मों को लाकर पुनः सिंचन कर देता है। हा ! खेद है मैं उन आस्त्रव शत्रुओं का निरोध कैसे करूँ? इस भीषण संसार से मैं कैसे मुक्त बनू ? ॥८५।। शांत-सुधारस