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दम्पतिरेतोरुधिरविवर्ते, किं शुभमिह मलकश्मलगर्ने । भृशमपि पिहितं स्रवति विरूपं,
को बहु मनुतेऽवस्करकूपम् ॥ भावय रे० ॥७७॥ अर्थ :- दम्पति के वीर्य और रक्त के कचरे के ढेर से जो निर्मित हुआ है, उस देह में अच्छा क्या हो सकता है ? उसको बारम्बार ढंक देने पर भी उसमें से बीभत्स पदार्थ बहते रहते हैं । इस कचरे के कूप की कौन प्रशंसा करे ? ॥७७॥ भजति सचन्द्रं शुचिताम्बूलं, कर्तुं मुखमारुतमनुकूलम् । तिष्ठति सुरभि कियन्तं कालं,
मुखमसुगन्धि जुगुप्सितलालम् ॥ भावय रे ॥७८ ॥
अर्थ :- मुख से अनुकूल पवन निकालने के लिए मनुष्य कर्पूरादि सुगन्धित पदार्थों से युक्त पान (तांबूल) खाता है । किन्तु मुख स्वयं ही घृणित लार से भरा हुआ है, उसकी यह सुगन्ध कब तक रहती है ? ॥७८।। असुरभिगन्धवहोऽन्तरचारी, आवरितुं शक्यो न विकारी । वपुरुपजिघ्रसि वारं-वारं,
__ हसति बुधस्तव शौचाचारम् ॥ भावय रे ॥ ७९ ॥
अर्थ :- शरीर में व्याप्त दुर्गन्धित और विकारी पवन को रोका नहीं जा सकता है, ऐसे शरीर को तू बारम्बार सूंघता है। विद्वज्जन तेरे इस 'शौचाचार' पर हास्य करते हैं ॥७९॥ शांत-सुधारस
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