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६. अशुचि भावना सच्छिद्रो मदिराघटः परिगलत्तल्लेशसंगशुचिः, शुच्यामृद्य मृदा बहिः स बहुशो, धौतोऽपि गङ्गोदकैः । नाधत्ते शुचितां यथा तनुभृतां कायो निकायो महाबीभत्सास्थिपुरीषमूत्ररजसा नायं तथा शुद्धयति ॥ ७१ ॥
शार्दूलविक्रीडितम् अर्थ :- छोटे-छोटे छिद्रों से युक्त शराब के घड़े में से धीरे-धीरे शराब की बूंदे बाहर निकल कर घड़े के बाह्य भाग को भी अपवित्र कर देती हैं । उस बाह्य भाग में सुन्दर मिट्टी का मर्दन किया जाय अथवा गंगा के पवित्र जल से उसे बारम्बार धोया जाय, फिर भी वह पवित्र नहीं बनता है, उसी प्रकार अति बीभत्स हड्डी, मल-मूत्र तथा रक्त के ढेर समान यह मानवदेह भी मात्र स्नानादि से पवित्र नहीं बनता है ॥७१॥ स्नायं स्नायं पुनरपि पुनः स्नान्ति शुद्धाभिरभि
रिं वारं बत मल-तनुं चन्दनैरर्चयन्ते । मूढात्मानो वयमपमलाः प्रीतिमित्याश्रयन्ते, नो शुद्ध्यन्ते कथमवकरः शक्यते शोद्धुमेवम् ॥ ७२ ॥
मन्दाक्रान्ता
शांत-सुधारस
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