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पश्य काञ्चनमितरपुद्गल- मिलितमञ्चति कां दशाम् । केवलस्य तु तस्य रूपं, विदितमेव भवादृशाम् ॥विनय० ॥५४॥
अर्थ :- अन्य पदार्थ के साथ मिलने पर स्वर्ण की क्या हालत होती है ? उसे देखो, और जब वह स्वच्छ होता है तब उसका रूप कैसा होता है ? इस बात को तो तुम जानते ही हो ना? ॥५४॥ एवमात्मनि कर्मवशतो, भवति रूपमनेकधा । कर्ममलरहिते तु भगवति, भासते काञ्चनविधा विनयः॥५५॥
अर्थ :- इसी प्रकार आत्मा भी कर्म के वशीभूत होकर नाना प्रकार के रूप धारण करता है और जब वह कर्ममल से रहित होता है, तब शुद्ध कंचन के समान दीप्तिमान होता है ॥५५॥ ज्ञानदर्शन-चरणपर्यव- परिवृतः परमेश्वरः । एक एवानुभव-सदने, स रमतामविनश्वरः ॥ विनय० ॥५६॥
अर्थ :- वह आत्मा (परमेश्वर) शाश्वत है और सदा ज्ञान, दर्शन और चारित्र के पर्यायों से घिरी हुई है और एक है। ऐसे परम अविनश्वर परमात्मा मेरे अनुभव मन्दिर में रमण करे ॥५६॥ रुचिर-समतामृतरसं क्षण-मुदितमास्वादय मुदा। विनय! विषयातीत-सुखरस, रति-रुदञ्चतु तेतदा ॥विनयः॥५७॥
अर्थ :- जिस समता के अमृतरस का स्वाद तुझमें अचानक जाग उठा है, उसका क्षण भर के लिए आस्वादन कर । हे विनय ! विषय से अतीत सुख के रस में तुझे सदा प्रेम हो ॥५७॥ शांत-सुधारस
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