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________________ अप्पेण वि कालेणं, केई जहागहियसीलसामण्णा । साहंति निययकज्जं, पुंडरीयमहारिसि व्व जहा ॥ २५२॥ शब्दार्थ : जिस भाव से शील - चारित्र - ग्रहण करते हैं, उसी भाव से शीलचारित्र की आराधना करने वाले कई साधु अल्पकाल में ही अपना कार्य (सद्गतिप्राप्ति रूप या मोक्ष प्राप्ति रूप कार्य) सिद्ध कर लेते हैं; जैसे महर्षि पुण्डरीक ने अल्पकाल में ही सद्गति प्राप्त कर ली थी ॥२५२॥ काऊण संकिलिडं सामन्नं, दुल्लहं विसोहिपयं । सुज्झिज्जा एगयरो, करिज्ज जइ उज्जमं पच्छा ॥२५३॥ शब्दार्थ : जिसने पहले चारित्र ( श्रामण्य) को दूषित कर दिया हो, उसे बाद में चारित्र की शुद्धि करना अत्यंत दुष्कर हो जाता है । परंतु यदि कोई चारित्र की विराधना हो जाने के तुरंत बाद ही प्रमाद को छोड़कर विशुद्ध रूप से चारित्रपालन करने में उद्यम करता है तो वह कदाचित् अपनी शुद्धि कर सकता है ॥२५३॥ उज्झिज्ज अंतरे च्चिय, खंडिय सबलादओ व्व होज्ज खणं । ओसन्नो सुहलेहड, न तरिज्ज व पच्छ उज्जमिउं ॥ २५४॥ शब्दार्थ : परंतु जो साधक साधुधर्म अंगीकार करने के बाद बीच में व्रतभंग करके चारित्र को खंडित कर देता है तथा प्रतिक्षण अशुद्ध भावों के वश अनेक प्रकार के अतिचारों (दोषों) का सेवन करके चारित्र को कलुषित (मलिन) बनाता उपदेशमाला ९२
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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