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________________ रहता है, धन-धान्य आदि परिग्रह की मर्यादा करता है तथा आरंभादि पाप-दोष वाले कार्यों को भी शंकित होकर करता है; बाद में उसके लिये प्रायश्चित्त लेकर उससे मुक्त होता है । यही श्रावक की वृत्ति कहलाती है ॥ २३५ ॥ निक्खमण - नाण- निव्वाण - जम्मभूमीओ वंदन जिणाणं । न य वसइ साहुजणविरहियंमि देसे बहुगुणेवि ॥ २३६ ॥ शब्दार्थ : जिनेश्वर भगवंत की दीक्षा, केवलज्ञान, निर्वाण और जन्म (कल्याणक)की भूमियों को वंदन करे और (सुराज्य, सुजल, धान्यसमृद्ध, धन समृद्ध इत्यादि) अनेक गुण युक्त भी साधु महात्माओं से रहित देशों में निवास न करें (क्योंकि उसमें मानव जन्म के सारभूत धर्मार्जन ( धर्म कमाई ) में हानि पहुँचती है) ॥२३६॥ परतित्थियाण पणमण - उब्भावण - थुणण- भत्तिरागं च । सक्कारं सम्माणं, दाणं विणयं च वज्जेइ ॥ २३७॥ शब्दार्थ : श्रावक बनने के बाद वह अन्यतीर्थिक (दूसरे धर्म-संप्रदाय वाले) साधुओं को गुरुबुद्धि से प्रणाम (वंदना नमस्कार), उनकी बढ़ा-चढ़ाकर तारीफ, या उनकी स्तुति, अथवा उनके प्रति भक्तिपूर्वक अनुराग, उनका वस्त्रादि से सत्कार, खड़े होकर सम्मान या उन्हें उत्तम पात्र मानकर आहारादि दान या उनके पैर धोने आदि के रूप में विनय करने का त्याग करता है ॥२३७|| उपदेशमाला ८६
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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