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________________ भंडाभोड़ न कर दे, इस डर से जो बालक आदि तक से दबा हुआ रहता है, वह चारित्र विराधक कुशील साधु इस लोक में साधुजनों द्वारा निनन्दनीय होता है, और परलोक में भी वह दुर्गति का अधिकारी बनता है। इसीलिए चाहे प्राण चले जाएँ, मगर चारित्र की विराधना नहीं करनी चाहिए ॥२२६।। गिरिसुअ-पुप्फसुआणं, सुविहिय ! आहरण्णं कारणविहन्नू । वज्जेज्ज सीलविगले, उज्जुयसीले हवेज्ज जई ॥२२७॥ शब्दार्थ : 'सुविहित साधुओ ! पर्वतीय प्रदेश में रहने वाले भीलों के तोते और फूलों के बाग में रहने वाले तापसों के तोते के उदाहरण से उन दोनों के दोष-गुण का कारण संग को ही समझो । उत्तम व्यक्ति के संग से गुण और अधम के संग से दोष पैदा होते हैं। इसी तरह आत्मार्थी साधुओं को भी आचारहीन दुःशील साधुओं का संग छोड़कर अपने ज्ञान-दर्शन-चारित्र की सम्यग् आराधना करने में पुरुषार्थ करना चाहिए । क्योंकि जैसी सोहबत (संगत) होगी, वैसा ही असर होगा । जैसा रंग होगा, वैसा ही रंग चढ़ेगा' ॥२२७॥ ओसन्नचरणकरण जइणो, वंदंति कारणं पप्प । जे सुविइयपरमत्था, ते वंदंते निवारेंति ॥२२८॥ शब्दार्थ : किसी कारणवश सुविहित साधु मूलगुण रूप चरण और पंचसमिति आदि उत्तरगुण रूप करण से शिथिल उपदेशमाला
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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