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आश्रवों का त्याग और अहिंसादि पाँच संवरों का अप्रमत्त रूप से पालन ही सिद्धिगति (मुक्ति) की प्राप्ति का कारण है ॥२१७॥ नाणे दंसण-चरणे तव-संयम-समिइ-गुत्ति-पच्छित्ते । दम-उस्सग्गववाए, दव्वाइ अभिग्गहे चेव ॥२१८॥ सद्दहणायरणाए निच्चं, उज्जुत्त-एसणाइ ठिओ । तस्स भवोयहितरणं, पव्वज्जाए जम्मं तु ॥२१९॥
शब्दार्थ : सम्यग् अवबोध रूप ज्ञान में, तत्त्वश्रद्धा रूप दर्शन में और आश्रवनिरोध-संवर (व्रत) ग्रहण रूप चारित्र में, बारह प्रकार के तप में, १७ प्रकार के संयम में, ईर्यासमिति आदि पाँच समितियों में, मनोगुप्ति आदि निवृत्तिमय ३ गुप्तियों में, पाँच इन्द्रियों के दमन (वशीकरण) में, शुद्धमार्ग के आचरण रूप उत्सर्ग (अथवा किसी प्रिय वस्तु का व्युत्सर्ग करने) में, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव रूप ४ प्रकार के अभिग्रह धारण करने में तथा श्रद्धा पूर्वक धर्माचरण करने में या पूर्वोक्त बातों में श्रद्धापूर्वक प्रवृत्ति करने में जो साधक एषणादि-भिक्षाचरी-विधि में कमर कसकर जुटा रहता है; उस मुमुक्षु साधक का प्रवज्या (मुनि दीक्षा) से संसारसमुद्र-तरण अवश्य हो जाता है । यानी श्रद्धा पूर्वक धर्माचरण में जुटा रहने वाला संसारसमुद्र को अवश्य पार कर लेता है। मगर जो श्रद्धारहित होकर धर्माचरण करते हैं, उपदेशमाला
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