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________________ मानता है; वैसे ही मोहमूढ़ मनुष्य विषय भोगों की विडंबना को सुख मानता है । कामांधजीव विषयसुख को ही सारभूत समझता है ॥२१२॥ विसयविसं हालहलं, विसयविसं उक्कडं पियंताणं । विसयविसाइन्नं पिव, विसयविसविसूइया होइ ॥२१३॥ ___ शब्दार्थ : ज्ञानी विवेकी महात्माओं ने विषय को हलाहल विष माना है। शब्दादि विषय रूपी विष से संयम रूपी जीवन का नाश हो जाता है विषय रूपी अग्रविष पीने से जीव उसके भयंकर परिणाम से अनंत दुःख प्राप्त करता है । अत्यंत खोटे परिणामों से अनंत बार जन्म लेना और मरना पड़ता है। और अंत में उसका डेरा दुर्गति में ही जाकर लगता है ॥२१३॥ एवं तु पंचहिं आसवेहिं, रइमाइणित्तुं अणुसमयं । चउगइदुहपेरंतं, अणुपरियटृति संसारे ॥२१४॥ __ शब्दार्थ : और इस तरह पाँचों इन्द्रियों के विकारों से अथवा प्राणातिपातादि पाँच आश्रवों से युक्त जीव मलिनपरिणामों से प्रतिक्षण पापकर्म रूपी मल को ग्रहण करता है । इस कारण वह जीव नरक आदि चारगति के दुःख रूप इस संसारचक्र में मोहमूढ़ होकर परिभ्रमण करता है ॥२१४॥ सव्वगईपक्खंदे, काहंति अणंतए अकयपुण्णा । जे य न सुणंति धम्मं, सोऊण य जे पमायति ॥२१५॥ उपदेशमाला
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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