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________________ सुमिणंतराणुभूयं, सोक्खं समइत्थियं जहा नत्थि । एवमिमं पि अईयं, सोक्खं सुमिणोवमं होइ ॥ १९०॥ शब्दार्थ : जैसे स्वप्न अवस्था में अनुभव किया हुआ सुख जागृत अवस्था में बिल्कुल नहीं रहता । वैसे ही भूतकाल में प्रत्यक्ष-अनुभव किया हुआ विषयसुख भी वर्तमानकाल में उसी स्वप्न के सुख के समान हो जाता है । अतः समस्त विषयसुखों को तुच्छ, कल्पित और क्षणिक मानकर वैराग्यपूर्वक आत्मदमन करना ही सर्वथा उचित है ॥ १९०॥ पुरनिद्धमणे जक्खो, महुरामंगू तहेव सुयनिहस । बोइ सुविहियजण, विसूरइ बहुँ च हियएणं ॥१९१॥ शब्दार्थ : ' आगमन - सिद्धान्त की परीक्षा में कसौटी के पत्थर के समान यानी बहुश्रुत मंगू नाम के आचार्य मथुरा नगरी में गंदे नाले के पास वाले यक्षमंदिर में यक्ष रूप में उत्पन्न हुए । किन्तु अपने सुविहित साधुजन ( शिष्यगण ) को प्रतिबोध करते समय हृदय में अत्यंत शोक करते थे ' ॥१९१॥ निग्गंतूण घराओ, न कओ धम्मो मए जिणक्खाओ | इड्डिरससायगुरुयत्तणेण न य चेइओ अप्पा ॥१९२॥ शब्दार्थ : हा ! मैंने गृहस्थ का त्याग करके चारित्र अंगीकार किया परंतु सुंदर आवास, वस्त्र आदि ऋद्धि की प्राप्ति से ऋद्धि गारव (गर्व) स्वादिष्ट भोजन आदि के रस प्राप्त होने से रसगारव और कोमल शय्यादिक के सुख से उपदेशमाला ६७
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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