________________
शब्दार्थ : सुशील, अत्यंत धर्मात्मा और सज्जन सुशिष्य अपने गुरु महाराज के प्रति अपनी श्रद्धा रखते हैं; जैसे चंडरुद्र-आचार्य के नये शिष्य ने श्रद्धा दृढ़ की थी ॥१६७।। अंगारजीववहगो, कोइ कुगुरु सुसीसपरिवारो । सुमिणे जईहिं दिट्ठो, कोलो गयकलहपरिकिन्नो ॥१६८॥
शब्दार्थ : कोयले की कंकरी में जीव मानकर हिंसा करने वाले किसी कुगुरु के सुशिष्यों ने दूसरे आचार्य के मुनियों को स्वप्न में एक डुक्कर को गजकलभों से सेवित देखा । उस आचार्य के कहने से वह पहचाना गया । और उस छाड़ दिया ॥१६८॥ सो उग्गभवसमुद्दे, सयंवरमुवागएहिं राएहिं । करहो वक्खरभरिओ, दिट्ठो पोराण सीसेहिं ॥१६९॥ ___ शब्दार्थ : 'उस कुगुरु ने उग्र संसारसमुद्र में परिभ्रमण
करते हुए ऊँट के रूप में जन्म लिया । उसे पूर्वजन्म के शिष्यों ने, जो अगले जन्म में राजपुत्र बने थे, स्वयंवर में आये थे, ऊँट के रूप में अपने पूर्वजन्म के गुरु को देखकर करुणा लाकर उसे दुःख से मुक्त किया ।' ॥१६९।। संसारवंचणा न वि, गणंति संसार-सूयरा जीवा । सुमिणगएण वि केई, बुझंति पुप्फचूलाव्व ॥१७०॥
शब्दार्थ : पुद्गलानन्दी, भवाभिनन्दी और संसार में अत्यंत आसक्त जीव सूअर के समान संसार में होने वाली विविध उपदेशमाला
५७