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________________ गुरु-गुरुतरोय अइगुरु, पिय-माइ-अवच्च-हियजणसिणेहो । चिंतिज्जमाण गुविलो, चत्तो अइधम्मतिसिएहिं ॥१४२॥ शब्दार्थ : माता, पिता, पत्र आदि प्रियजनों पर क्रमशः अधिक, अधिकतर और अधिकतम स्नेह बढ़ता जाता है । अत्यंत धर्मपिपासु साधकों ने इस स्नेह को अनंत जन्मों का कारण जानकर धर्म के शत्र रूप इस स्नेह का त्याग किया है। इसीलिए धर्माभिलाषी साधक प्रियजन आदि के स्नेह (आसक्ति) में न पड़कर धर्म की आराधना करें ॥१४२॥ अमुणियपरमत्थाणं, बंधुजणसिणेहवइयरो होइ । अवगयसंसारसहावनिच्छयाणं समं हिययं ॥१४३॥ ___ शब्दार्थ : जिन्होंने परमार्थ का स्वरूप नहीं जाना, उन्हें ही अपने गृहस्थपक्ष के भाई-बन्धु और कुटुम्ब-कबीले पर अत्यधिक स्नेहराग (आसक्ति) होता है । जिन्होंने निश्चयपूर्वक संसार के स्वभाव को जान लिया है, उनका हृदय सब पर सम रहता है ॥१४३॥ माया पिया य भाया, भज्जा पुत्ता सुही य नियगा य । इह चेव बहुविहाइं, करंति भय-वेमणस्साइं ॥१४४॥ शब्दार्थ : माता, पिता, भ्राता, भार्या, पुत्र, मित्र और स्वजन ये सब इस संसार में प्रसंगवश अनेक प्रकार के भय (मरणांत डर) और वैमनस्य (मन मुटाव) पैदा कर देते हैं ॥१४४।। उपदेशमाला ४८
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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