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________________ संजमतवालसाणं, वेरग्गकहा न होइ कण्णसुहा । संविग्गपक्खियाणं, होज्ज व केसिंचि नाणीणं ॥५३३॥ शब्दार्थ : १७ प्रकार के संयम और १२ प्रकार के तप के आचरण में जो प्रमादी हैं, उनके कानों को यह वैराग्यकथा सुखदायिनी नहीं लगती । यह तो संविग्नपाक्षिक किन्हीं ज्ञानी पुरुषों को ही सुहाती है । उन्हीं कानों को यह उपदेशमाला रूचिकर-सुखकर लगती है, सभी को नहीं ॥५३३॥ सोऊण पगरणमिणं, धम्मे जाओ न उज्जमो जस्स । न य जणियं वेरग्गं, जाणिज्ज अणंतसंसारी ॥५३४॥ शब्दार्थ : वैराग्यरस से परिपूर्ण इस उपदेशमाला-प्रकरण को सुनकर भी जिसके दिल में धर्माचरण में पुरुषार्थ करने का उल्लास नहीं पैदा होता, और न पंचेन्द्रिय-विषयों के प्रति विरक्ति पैदा होती है, समझो, वह अनंतसंसारी है। मतलब यह है कि अनंतसंसारी जीव को बहुत उपदेश देने पर भी वैराग्य पैदा नहीं होता ॥५३४॥ कम्माण सुबहुयाणुवसमेण, उवगच्छई इमं सम्मं । कम्मलचिक्कणाणं, वच्चइ पासेण भण्णंतं ॥५३५॥ ___ शब्दार्थ : जब किसी जीव के कर्मों का अत्यधिक मात्रा में उपशम होता है, तभी वह उपदेशमाला के तत्त्वज्ञान को भलीभांति प्राप्त कर सकता है। परंतु जिन व्यक्तियों पर निकाचित उपदेशमाला २१२
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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