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________________ हीणस्स वि सुद्धपरुपगस्स, संविग्गपक्खवाइस्स । जा-जा हवेज्ज जयणा, सा-सा निज्जरा होइ ॥५२६॥ शब्दार्थ : कोई साधक उत्तरगुणों में कुछ कमजोर (शिथिल) होने पर भी प्ररूपणा विशुद्धमार्ग की करता है, संविग्न साधुओं का पक्षपाती है, वह ऐसे प्रबल कारणों के उपस्थित होने पर बहुत दोष वाली वस्तुओं के त्याग तथा अल्पदोष वाली वस्तुओं के ग्रहण रूप यतना जितनी-जितनी यथाशक्ति, यथामति करता है उतनी-उतनी उसके कर्मों की निर्जरा (एक अंश से कर्मक्षय) होता जाता है ॥५२६।। सुंकाई परिसुद्धे, सइ लाभे कुणइ वाणिओ चेहूँ । एमेव य गीयत्थो, आयं दटुं समायरइ ॥५२७॥ ___ शब्दार्थ : जैसे कोई वणिक् (व्यापारी) तभी व्यापार करता है, जब राज्य का कर, दूकान, नौकर आदि का खर्च निकालकर उसे लाभ होता हो; वैसे ही गीतार्थ मुनि भी शास्त्रज्ञान से लाभालाभ जानकर उल्पदोष-बहुलाभ (आय) वाला कार्य यतनापूर्वक करता है ॥५२७।। आमुक्क जोगिणो च्चिय, हवइ थोवा वि तस्स जीवदया । संविग्गपक्खजयणा, तो दिट्ठा साहुवग्गस्स ॥५२८॥ शब्दार्थ : जिसने संयमयोग्य प्रवृत्ति (व्यापार) सर्वथा छोड़ दी है, उस साधु के हृदय में यदि थोड़ी-सी भी उपदेशमाला २०९
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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