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________________ वैसे ही अपने पास विश्वास से आये हुए भव्यजीवों के सामने जो सूत्र (सिद्धांत) विरुद्ध प्ररूपणा करता है, उन्हें उन्मार्ग में प्रवृत्त करता है, वह आचार्य भी उनके साथ विश्वासघात-रूप मस्तक छेदन करता है ॥५१८ ॥ सावज्जजोगपरिवज्जणाए, सव्वुत्तमो जइधम्मो । बीओ सावगधम्मो, तइओ संविग्गपक्ख हो ॥५१९ ॥ शब्दार्थ : प्रथम और सर्वोत्तम मार्ग है- सावद्य (पापमय) व्यापार ( प्रवृत्ति) का सर्वथा त्याग रूप साधुधर्म, उसके बाद दूसरा है - सम्यक्त्वमूलक देशविरतिरूप श्रावकधर्म और तीसरा मार्ग संविग्नपक्ष का है ॥५१९ ॥ - सेसा मिच्छदिट्ठी, गिहिलिंग-कुलिंग- दव्वलिंगेहिं । जह तिनिय मोक्खपहा, संसारपहा तहा तिणि ॥ ५२० ॥ । शब्दार्थ : ऊपर बताये हुए तीन मार्गों के अलावा बाकी मार्ग मिथ्यादृष्टियों के हैं । वे भी तीन हैं - गृहस्थवेषधारी, तापस, जोगी, संन्यासी आदि कुलिंगधारी और द्रव्य से साधु का वेष धारण करने वाला द्रव्यलिंगी साधक । जैसे ऊपर वाली गाथा में तीन मोक्ष के मार्ग बताये हैं, वैसे ये तीनों संसार (परिभ्रमण) के मार्ग हैं ||५२० ॥ संसारसागरमिणं, परिभमंतेहिं सव्वजीवेहिं । गहियाणि य मुक्काणि य, अणंतसो दव्वलिंगाई ॥५२१ ॥ उपदेशमाला २०६
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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