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________________ बहलाने वाला कोरा साधुवेष उसे दुर्गति में गिरते हुए आधारभूत (सहारा) नहीं हो सकता । अर्थात् - मूलगुण - उत्तरगुणों के पालन किये बिना केवल दोष धारण करने से दुर्गति से रक्षा नहीं हो सकती ॥५११॥ निच्छयनयस्स चरणस्सुवग्घाए, नाणदंसणवहो वि । ववहारस्स उ चरणे हयम्मि, भयणा उ सेसाणं ॥५१२॥ शब्दार्थ : 'निश्चयनय की दृष्टि से कहे तो चारित्र के नाश होने पर ज्ञान और दर्शन भी विनष्ट हो जाते हैं । व्यवहारनय की दृष्टि से कहे तो चारित्रनाश होने पर ज्ञान - दर्शन नष्ट होते भी हैं, और नहीं भी होते हैं।' तात्पर्य यह है कि चारित्र का नाश होने पर आश्रव का सेवन करने पर ज्ञान - दर्शन दोनों नष्ट हो जाते हैं; परंतु कोई साधक मोहकर्म या विषयासक्ति के कारण चारित्र को छोड़ देता है, फिर भी उसकी श्रद्धा (दर्शन) चारित्र के प्रति पूरी है और उसके स्वरूप का भी उसे यथार्थ ज्ञान है, इसीलिए उसके ज्ञान - दर्शन चारित्र गुण के बिना भी संभव हैं ॥५१२॥ सुज्झइ जई सुचरणो, सुज्झइ सुस्सावओ वि गुणकलिओ । ओसन्नचरणकरणो, सुज्झइ संविग्गपक्खरुई ॥५१३॥ शब्दार्थ : सम्यग्चारित्री साधु किसी दोष के लगने पर शुद्ध हो सकता है, जो श्रावक विनय - ज्ञानादि गुणों से युक्त है, वह भी शुद्ध हो सकता है; तथा चरण-करण में शिथिल, किन्तु मोक्षाभिलाषी और क्रिया में रूचि रखने वाला संविग्न उपदेशमाला २०३
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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