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________________ शब्दार्थ : हितैषी वैद्य किसी वातरोगी के वातरोग को मिटाने के लिए ज्यों-ज्यों सोंठ, कालीमिर्च आदि औषध देता है, त्यों-त्यों वह वायुरोग असाध्य होने के कारण उदर में अधिकाधिक बढ़ता जाता है। इसी प्रकार प्राप्त वीतरागदेव के अमृत-वचन रूपी औषध का अधिक से अधिक पान करने पर भी वह गरुकर्मा जीव के ज्ञानावरणीयादि कर्म रूपी वातरोग को शांत नहीं करता; बल्कि उस बहु गुरुकर्मा जीव के असाध्य कर्म रूपी वातरोग में वृद्धि होती जाती है ॥४८८॥ दड्डजउमकज्जकर, भिन्नं संखं न होई पुणकरणं । लोहं च तंबविद्धं, न एइ परिकम्मणं किंचि ॥४८९॥ शब्दार्थ : जैसे जली हुई लाख किसी काम में नहीं आती, टूटा हुआ शंख फिर से जोड़ा नहीं जा सकता, तांबे के साथ मिला हुआ लोहा भी बिलकुल जोड़ने लायक नहीं रहता; वैसे ही असाध्य गुरु कर्म-रोग से पीड़ित व्यक्ति धर्माचरण में अपने को नहीं जोड़ सकता; वह धर्माचरण के अयोग्य बन जाता है । वह किसी भी धर्माचरण द्वारा अपने जीवन को सुधार नहीं सकता ॥४८९॥ को दाही उवएस, चरणालसयाणं दुव्विअड्डाण ? । इंदस्स देवलोगो, न कहिज्जइ जाणमाणस्स ॥४९०॥ शब्दार्थ : जो साधक धर्माचरण (चारित्रपालन) करने में आलसी हैं, अधकचरे पंडित हैं, यानी थोड़ा-सा ज्ञान पाकर उपदेशमाला १९३
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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