SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इक्कंपि नत्थि जं सुट्ठ, सुचरियं जह इमं बलं मज्झ । को नाम दढक्कारो, मरणंते मंदपुण्णस्स ॥४६८॥ __शब्दार्थ : मैंने एक भी ऐसे सुकृत (पुण्य-शुभ-कर्म) का आचरण अच्छी तरह नहीं किया, जिसके बल पर मैं आगामी जन्म में सुखी हो सकूँ । प्राप्त उत्तम सामग्री को मैंने निरर्थक खो दी । अतः अब मुझ अभागे (हीनपुण्य) का मृत्यु के अंतिम क्षणों में कौन-सा मजबूत सहारा है ? ॥४६८।। सूल-विस-अहि-विसूईय-पाणीय-सत्थग्गिसंभमेहिं च । देहंतरसंकमणं, करेइ जीवो मुहुत्तेण ॥४६९॥ ___ शब्दार्थ : और इस प्रकार पश्चात्ताप करता हुआ जीव उदरपीड़ा से, पानी में डूबकर, जहर खाकर, साँप के काटने से, पेचिश रोग से, किसी शस्त्र के प्रहार से, अग्नि में जलकर या अत्यंत भय अथवा अत्यंत हर्षावेश से सहसा हृदयगति रुक जाने से एक ही मुहूर्त में एक देह को छोड़कर दूसरा देह पा लेता है । कहने का मतलब यह है कि ऐसा अधर्मी जीव किसी न किसी कारणवश सहसा चल बसता है; और हाथ मलता ही रह जाता है; उसके मन के मंसूबे घरे रह जाते हैं । इसीलिए ऐसा समय आए उससे पहले ही १. तुलना : लोहाय नावं जलधौ भिनत्ति, सूत्राय वैडूर्यमणिं दृणाति । सच्चन्दनं ह्योषति भस्मनेऽसौ, यो मानुषत्वं नयतीन्द्रियार्थे । उपदेशमाला १८३
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy