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________________ हुआ है; क्योंकि उसका दिया हुआ दान भी शुद्ध संयमी के लिए कल्पनीय नहीं होता ||४३०॥ सव्वाओगे जह कोइ, अमच्चो नरवइस्स धित्तूणं । आणाहरणे पावड़, वह - बंधण - दव्वहरणं च ॥४३१॥ शब्दार्थ : जैसे कोई प्रधानमंत्री राजा की कृपा से समस्त अधिकारों को पाकर बाद में उस राजा की आज्ञा का उल्लंघन करता है तो उसे दंड आदि प्रहार, लोहे की जंजीर से बंधन में डालने तथा द्रव्य आदि सर्वस्व छीने जाने की सजा मिलती है और अंत में उसे मृत्यु का वरण भी करना पड़ता है ॥४३१॥ तह छक्कायमहव्वयसव्वनिवित्तीउ गिहिऊण जई । एगमवि विराहंतो, अमच्चरन्नो हाइ बोहिं ॥४३२॥ शब्दार्थ : उसी तरह षड्जीवनिकायरक्षा और पंचमहाव्रत संबंधी सर्वथा निवृत्तिरूप संयम ग्रहण करके उच्चाधिकार रूप साधु पद प्राप्त करके जो एक भी जीव की अथवा एक भी महाव्रत की विराधना करता है, वह देवाधिदेव श्री तीर्थंकर परमात्मा के द्वारा प्रदत्त सम्यक्त्व -महारत्न का विनाश करता है । अर्थात्-जिनाज्ञा का भंग करने से सम्यक्त्व का नाश करके वह महाविडंबना का भागी होता है और उससे वह अनंतसंसारी बनता है ॥ ४३२ ॥ उपदेशमाला १६७
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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