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________________ अप्पागमो किलिस्सइ, जइ वि करेइ अइदुक्करं तु तवं । सुंदरबुद्धीइ कयं, बहुयं पि न सुंदरं होई ॥४१४॥ शब्दार्थ : अल्पश्रुत साधु चाहे सुबुद्धि और सद्भावना से मासक्षमणादि अतिदुष्कर तप करे और संयम-आराधना करे, फिर भी वह काया को ही कष्ट देता है। क्योंकि सुबुद्धि से किया हुआ बहुत-सा आचरण भी सुंदर नहीं होता । वस्तुतः शास्त्रज्ञानरहित स्वच्छन्दमति से की हुई कठोर से कठोर क्रिया भी मोक्षफल नहीं दे सकती । वह एक प्रकार का अज्ञानकष्ट ही है ॥४१४॥ अपरिच्छियसुयनिहसस्स, केवलमभिन्नसुत्तचारिस्स । सव्वुज्जमेण वि कयं, अन्नाणतवे बहुं पडइ ॥४१५॥ शब्दार्थ : जिस साधु ने आगमों का निष्कर्ष नहीं जाना; वह टीका आदि पंचांगी के ज्ञान के बिना केवल सूत्र ही समझकर केवल श्रुत-अक्षर के अनुसार ही चलता है तो वह चाहे कितने उद्यम से क्रियानुष्ठानादि करता है तो भी वह अज्ञानकष्ट रूप ही गिना जाता है ॥४१५॥ जह दाइयम्मि वि पहे, तस्स विसेसे पहस्सऽयाणंतो । पहिओ किलिस्सइ च्चिय तह, लिंगायारसुयमितो ॥४१६॥ शब्दार्थ : जैसे किसी मार्ग के जानकार पुरुष द्वारा किसी १. जिणाणाए कुणं ताणं नूणं निव्वाण कारणं । सुंदरंऽपि सबुद्धिए, सव्वं भवनिबंधणं ॥ उपदेशमाला १५९
SR No.034148
Book TitleUpdeshmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmdas Gani
PublisherAshapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar
Publication Year2018
Total Pages216
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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